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आज भारी वर्षा होने लगी हैं...
ट्राफिक में उलझने भी बढ़ने लगी हैं...
आज भी रोज की तरह घर लेट आया हूँ...
सारी देह सर से पैर तक कंपित हैं..
वर्षा में भीगने से कम,
मेरी श्रीमती जी से ज्यादा भयभीत हैं...|
जैसे ही मैंने घर में पाऊँ धरा,
जूते बाहर सरकाए..छाता बंद करा...
अंदर से एक दहाड़ सी आयी...
"आ गए...? आज क्या बहाना था...?
लोकल छूट गयी, या मित्र को मिलने जाना था... ?
आप के पास बहानों की तो कमी ना होगी...?
ये भी नहीं सोचा होगा इस अंधेरे में बीवी,
कैसे दो बच्चो का तांडव सह रही होगी...?"
मैंने कुछ ना कहने में भलाई मानी,
छोटे को चपत जड़ी; बड़े को चपत लगाने कदम बढ़ाए...
तभी नासिका ने आँखों को दिशा बताई...
कोई जनि पहचानी खुशबू आई...
सामने प्लेट में पकोड़े बड़े मस्त थे...
मैंने पकोड़ों की राह चुन ली...
तभी श्रीमती की और दो बाते सुन ली....
"आज बहार खाना खाया नहीं शायद...?
या आज तुम्हारा कोई "प्रोग्राम" नहीं था?
तुम्हारे बेकार मित्रो ने आज तुम्हे नहीं पिलाई...?
या फिर तुम्हे ही पिने की याद नहीं आयी...?
आय्याशियो को ट्राफिक का नाम देते हो..
क्या मुझे पता नहीं तुम घर रोज देरी से क्यों आते हो??? "
मैंने कहा "देखो भागवान,ऐसे कोसो नहीं...
तुम्हारा पति कोई शराबी नहीं हैं...जो रोज पीकर आये...
अपनी दाल-रोटी भर आमदनी, रोज कबाब कोफ्तो में उडाये.."
तभी श्रीमती रूद्र हो गयी...
"अरे इतना होश होता तो,कुछ एहसास रखते...!
बेटी के ब्याह के लिए कोई अच्छा रिश्ता ढूंढ लेते...!
दिन भर ऑफिस में रहते हो,शाम में दोस्तों के साथ होते हो...
कोई फ़िक्र नहीं हैं बस दिखावा हैं,
पता हैं; तुम अज कल क्यों देर से आते हो...
बॉस के सेक्रेटरी की "कंपनी" में अज कल देरतक मजे उठाते हो...!"
अब तो बात चारित्र्य की थी सो मैं भी बोल पड़ा...
"देखो यू शक करना ठीक नहीं.. मैं कोई मजे नहीं उठाता..
रोज ऑफिस जाने के लिए अब तो ऑटो भी नहीं लेता हूँ...
इसी बहाने २५ रुपये रोज बचा लेता हूँ..,
दिन भर ऑफिस में काम ही काम होता हैं...
पता तक चलता नहीं...कब दिन ढलता हैं; कब दिया जलता हैं...
सभी दोस्त मुझसे इसी लिए कफा हैं की मैं उनसे अब ज्यादा मिलता नहीं...
मिलु भी तो दो घडी से ज्यादा बेहेलता नहीं...
मैंने पार्टियों में जाना पिछले कई महीनो से बंद कर रखा हैं...
वो ही पैसा अब अल्पबचत में भर आता हूँ...
मैं अज कल एक एक पैसा खर्च करते कतराता हूँ...
जनता हूँ, बच्चो को पढ़ना हैं, बड़ी बेटी का ब्याह भी रचाना हैं...
मुझे हर जिम्मेदारी का एहसास हैं...
इसी लिए हर वक्त पैसा जुटाता हूँ...
जिस देरी को तुम मेरी अय्याशी का नाम देती हो..
उसी ओवर टाइम में, मैं एक्स्ट्रा इनकम कमाता हूँ..."
ये सुन कर श्रीमती जी चुप सी हो गयी...
नजरों को झुकाए बस मौन सी कही खो गयी...
मैंने भी उन्हें पास कर लिया...दो घडी सही..
फिर गुजरा वक्त याद कर लिया ...
रोज की आपा धापी में मनो वो मुझसे कितनी दूर हो गयी थी...
उसके गर्म आंसू, मेरी फटी कमीज़ में सामने लगे..
दो ह्रदय एक-दूजे को मौन ही समझाने लगे,
बाहर वर्षा और भीतर हमरी सौवेदनाये चरम पहुँच गयी थी....
बाहर वर्षा और भीतर हमरी सौवेदनाये चरम पहुँच गयी थी....
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..............................***प्रारब्ध***..............................
ट्राफिक में उलझने भी बढ़ने लगी हैं...
आज भी रोज की तरह घर लेट आया हूँ...
सारी देह सर से पैर तक कंपित हैं..
वर्षा में भीगने से कम,
मेरी श्रीमती जी से ज्यादा भयभीत हैं...|
जैसे ही मैंने घर में पाऊँ धरा,
जूते बाहर सरकाए..छाता बंद करा...
अंदर से एक दहाड़ सी आयी...
"आ गए...? आज क्या बहाना था...?
लोकल छूट गयी, या मित्र को मिलने जाना था... ?
आप के पास बहानों की तो कमी ना होगी...?
ये भी नहीं सोचा होगा इस अंधेरे में बीवी,
कैसे दो बच्चो का तांडव सह रही होगी...?"
मैंने कुछ ना कहने में भलाई मानी,
छोटे को चपत जड़ी; बड़े को चपत लगाने कदम बढ़ाए...
तभी नासिका ने आँखों को दिशा बताई...
कोई जनि पहचानी खुशबू आई...
सामने प्लेट में पकोड़े बड़े मस्त थे...
मैंने पकोड़ों की राह चुन ली...
तभी श्रीमती की और दो बाते सुन ली....
"आज बहार खाना खाया नहीं शायद...?
या आज तुम्हारा कोई "प्रोग्राम" नहीं था?
तुम्हारे बेकार मित्रो ने आज तुम्हे नहीं पिलाई...?
या फिर तुम्हे ही पिने की याद नहीं आयी...?
आय्याशियो को ट्राफिक का नाम देते हो..
क्या मुझे पता नहीं तुम घर रोज देरी से क्यों आते हो??? "
मैंने कहा "देखो भागवान,ऐसे कोसो नहीं...
तुम्हारा पति कोई शराबी नहीं हैं...जो रोज पीकर आये...
अपनी दाल-रोटी भर आमदनी, रोज कबाब कोफ्तो में उडाये.."
तभी श्रीमती रूद्र हो गयी...
"अरे इतना होश होता तो,कुछ एहसास रखते...!
बेटी के ब्याह के लिए कोई अच्छा रिश्ता ढूंढ लेते...!
दिन भर ऑफिस में रहते हो,शाम में दोस्तों के साथ होते हो...
कोई फ़िक्र नहीं हैं बस दिखावा हैं,
पता हैं; तुम अज कल क्यों देर से आते हो...
बॉस के सेक्रेटरी की "कंपनी" में अज कल देरतक मजे उठाते हो...!"
अब तो बात चारित्र्य की थी सो मैं भी बोल पड़ा...
"देखो यू शक करना ठीक नहीं.. मैं कोई मजे नहीं उठाता..
रोज ऑफिस जाने के लिए अब तो ऑटो भी नहीं लेता हूँ...
इसी बहाने २५ रुपये रोज बचा लेता हूँ..,
दिन भर ऑफिस में काम ही काम होता हैं...
पता तक चलता नहीं...कब दिन ढलता हैं; कब दिया जलता हैं...
सभी दोस्त मुझसे इसी लिए कफा हैं की मैं उनसे अब ज्यादा मिलता नहीं...
मिलु भी तो दो घडी से ज्यादा बेहेलता नहीं...
मैंने पार्टियों में जाना पिछले कई महीनो से बंद कर रखा हैं...
वो ही पैसा अब अल्पबचत में भर आता हूँ...
मैं अज कल एक एक पैसा खर्च करते कतराता हूँ...
जनता हूँ, बच्चो को पढ़ना हैं, बड़ी बेटी का ब्याह भी रचाना हैं...
मुझे हर जिम्मेदारी का एहसास हैं...
इसी लिए हर वक्त पैसा जुटाता हूँ...
जिस देरी को तुम मेरी अय्याशी का नाम देती हो..
उसी ओवर टाइम में, मैं एक्स्ट्रा इनकम कमाता हूँ..."
ये सुन कर श्रीमती जी चुप सी हो गयी...
नजरों को झुकाए बस मौन सी कही खो गयी...
मैंने भी उन्हें पास कर लिया...दो घडी सही..
फिर गुजरा वक्त याद कर लिया ...
रोज की आपा धापी में मनो वो मुझसे कितनी दूर हो गयी थी...
उसके गर्म आंसू, मेरी फटी कमीज़ में सामने लगे..
दो ह्रदय एक-दूजे को मौन ही समझाने लगे,
बाहर वर्षा और भीतर हमरी सौवेदनाये चरम पहुँच गयी थी....
बाहर वर्षा और भीतर हमरी सौवेदनाये चरम पहुँच गयी थी....
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..............................***प्रारब्ध***..............................